“आशा दशमी” का अर्थ है इच्छाओं की पूर्ति का दसवां दिन यह व्रत विशेष रूप से देवी पार्वती को समर्पित होता है, जो शक्ति, भक्ति और वैवाहिक सुख की प्रतीक मानी जाती हैं। “आशा” का अर्थ है आशा या इच्छा, और “दशमी” चंद्र पखवाड़े के दसवें दिन को दर्शाता है। यह व्रत उत्तर भारत में विशेष रूप से श्रद्धा और आस्था के साथ मनाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन व्रत रखकर देवी पार्वती की पूजा करने से मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, विशेषकर विवाहित जीवन में सुख और समृद्धि आती है। अब जानिए इसकी तिथि, महत्व और कथा।
कब मनाई जाती हैं आशा दशमी
आशा दशमी व्रत हर साल चंद्र कैलेंडर के अनुसार आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाया जाता है। इस साल यह व्रत 5 जुलाई को रखा जाएगा। कुछ जगहों पर इसे कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की दशमी को भी मनाया जाता है। इस व्रत को गिरिजा पूजा के नाम से भी जाना जाता है और यह देवी पार्वती को समर्पित होता है।
आशा दशमी महत्व
यह व्रत शांति, अच्छे स्वास्थ्य और समृद्धि पाने के लिए किया जाता है। मान्यता है कि इस व्रत को करने से आपकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो सकती हैं।
आशा दशमी की कथा
प्राचीन काल की बात है, निषध देश में एक पराक्रमी और धर्मनिष्ठ राजा नल राज्य करते थे। वह अपनी पत्नी दमयंती के साथ प्रेमपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे। राजा नल के छोटे भाई पुष्कर ने एक दिन उन्हें जुए में हरा दिया, जिसके बाद नल को अपना राज्य छोड़ना पड़ा। राज्य से निष्कासित होने के बाद, नल और दमयंती जंगलों में भटकते रहे। वे बेहद कठिन परिस्थितियों में केवल जल ग्रहण कर जीवन व्यतीत कर रहे थे और एक वन से दूसरे वन में निर्जन मार्गों पर भ्रमण करते थे।
एक दिन, जंगल में भ्रमण करते हुए राजा नल को कुछ सोने की चमक वाले पक्षी दिखाई दिए। उन्हें पकड़ने की इच्छा से राजा ने अपने वस्त्र का एक हिस्सा पक्षियों पर फेंका, लेकिन वे पक्षी उस कपड़े को लेकर आकाश में उड़ गए। यह देखकर राजा अत्यंत निराश हो गए। उन्होंने सोचा कि अब वे दमयंती के लिए भी कुछ नहीं कर सकते। निराशा में डूबे हुए राजा, जब दमयंती नींद में थी, उसे अकेला छोड़कर जंगल में आगे बढ़ गए। जब दमयंती नींद से जागी, तो राजा को वहां न पाकर वह जोर-जोर से रोने लगी। वह अपने पति को खोजने के लिए इधर-उधर भटकने लगी। कई दिन तक वन-वन भटकने के बाद दमयंती चेदी देश पहुंची, जहां उसकी हालत देखकर बच्चे और लोग आश्चर्य से उसे देखने लगे।
इसी दौरान चेदी देश की राजमाता की दृष्टि दमयंती पर पड़ी। दमयंती उस समय चंद्रमा की रेखा के समान शोक में भूमि पर गिरी हुई थी। राजमाता ने उसे राजमहल बुलाया और पूछा कि वह कौन है। दमयंती ने विनम्रता से उत्तर दिया “मैं एक विवाहित स्त्री हूं। मैं न किसी के चरण धोती हूं, न जूठा खाती हूं। यदि यहां कोई मुझे जबरन प्राप्त करने का प्रयास करेगा तो वह आपके राज्य में दंडनीय होगा।” राजमाता ने उसकी शर्त मान ली और उसे राजमहल में ठहरने दिया।
कुछ समय बाद, एक ब्राह्मण दमयंती को लेकर उसके माता-पिता के पास ले गया। वहां उसे सबका स्नेह मिला, लेकिन पति वियोग में वह अत्यंत दुखी रहती थी। एक दिन दमयंती ने एक विद्वान ब्राह्मण से पूछा कि कौन-सा व्रत या उपाय करने से वह अपने पति को पुनः पा सकती है। ब्राह्मण ने उसे आशा दशमी व्रत करने की सलाह दी। दमयंती ने पूरे विधि-विधान से यह व्रत किया। इस व्रत के पुण्य प्रभाव से उसे पुनः राजा नल की प्राप्ति हुई और वे दोनों फिर से सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे।
इस कथा से यह विश्वास किया जाता है कि आशा दशमी व्रत मनोकामना पूर्ति, वैवाहिक सुख और वियोग समाप्त करने के लिए अत्यंत फलदायक होता है।