30 जून… दुनिया भर में यह दिन एक खास वजह से याद किया जाता है। इसे कहते हैं विश्व क्षुद्रग्रह दिवस । इसका मकसद है लोगों को यह जागरूक करना कि कैसे अंतरिक्ष से आने वाला एक छोटा सा पत्थर भी धरती के लिए विनाशकारी हो सकता है। लेकिन क्या आप जानते हैं… हमारे प्राचीन भारतीय ग्रंथों में भी ऐसी ही ब्रह्मांडीय आपदाओं का जिक्र है? आज विज्ञान जिसे “क्षुद्रग्रह प्रभाव ” कहता है, हमारे पूर्वज उसे “प्राकृतिक प्रलय”, “तांडव ऊर्जा” या फिर “दैवीय चेतावनी” के रूप में देखते थे।
वैज्ञानिक घटना: टुंगुस्का विस्फोट
30 जून 1908 को रूस के साइबेरिया इलाके में एक बड़ा विस्फोट हुआ था। हालांकि वह जगह वीरान थी, लेकिन 2000 वर्ग किलोमीटर के जंगल तबाह हो गए। सैकड़ों किलोमीटर दूर तक लोगों ने उजाला और कंपन महसूस किया। आज वैज्ञानिक मानते हैं कि यह एक उल्कापिंड के वायुमंडल में फटने की घटना थी। इसी घटना की याद में हर साल 30 जून को विश्व क्षुद्रग्रह दिवस मनाया जाता है।
पौराणिक दृष्टि: जब शिव ने खोला तीसरा नेत्र
हमारे ग्रंथों में कई ऐसी कथाएं हैं जो आज के “क्षुद्रग्रह प्रभाव” से मिलती-जुलती लगती हैं। “शिव का तीसरा नेत्र”… यह सिर्फ एक धार्मिक प्रतीक नहीं, बल्कि असीम ऊर्जा और ब्रह्मांडीय शक्ति का प्रतीक है। कहा जाता है कि जब भी असंतुलन, अन्याय और अधर्म अपने चरम पर पहुंचा तो भगवान शिव ने अपने तीसरे नेत्र को खोला और उस से निकली भीषण अग्नि लपटों ने सब कुछ भस्म कर दिया। यह घटना बिल्कुल वैसी ही थी, जैसे आज के जमाने में आसमान से कोई विशाल उल्का गिर जाए। कई पौराणिक कथाओं में इसे “अग्नि प्रलय”, “धूमकेतु का प्रकोप” या “आकाशीय अग्नि” कहा गया है।
ब्रह्मांडीय चेतावनी और प्रकृति का संतुलन
शिव का तीसरा नेत्र खोलना केवल विनाश का संकेत नहीं था। यह एक “चेतावनी” थी कि जब इंसान प्रकृति से खिलवाड़ करता है तो ब्रह्मांड खुद उस असंतुलन को खत्म करने के लिए कदम उठाता है।
आज का क्षुद्रग्रह दिवस भी हमें यही सिखाता है। कि धरती सिर्फ हमारी नहीं है यहां के हर पेड़, हर जीव, हर कण… और यहां तक कि अंतरिक्ष में उड़ते पत्थर भी इस ब्रह्मांडीय संतुलन का हिस्सा हैं।
आज का संदेश: विज्ञान और अध्यात्म का मेल
आज जब हम आकाशीय पिंडों की ओर वैज्ञानिक नजर से देख रहे हैं तो साथ ही हमें अपनी आध्यात्मिक समझ को भी मजबूत करना होगा।