जब भी कोई होली की बात करता है तो सबसे हमारे ध्यान में मथुरा और वृंदावन की होली आती है. मथुरा -वृंदावन की होली की बात करें तो यहां विभिन्न तरह की होली मनाई जाती है जिसे देखने के लिए देश-विदेश से लोग आते हैं.यहां फुलेरा दूज से होली का पर्व शुरू होता है और चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा पंचमी तिथि यानी रंग पंचमी तक ये त्योहार अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है.ब्रज में होली के अलावा लड्डू होली, फूलों की होली, लट्ठमार होली और रंग वाली होली का खूब जश्न मनाया जाता है। ऐसे में ये है वहां से जुड़ी कुछ परंपराएं जो शायद ही आप जानते होंगे.
कैसे शुरआत हुई लड्डूमार होली की : –

वैसे तो लड्डू खुशी के मौके पर बांटे जाते हैं, लेकिन बरसाना में लट्ठमार होली से ठीक एक दिन पहले लोगों पर अबीर-गुलाल की तरह लड्डू से होली खेली जाती हैं। कहा जाता है कि नंदगांव से होली खेलने के लिए बरसाना आने का आमंत्रण स्वीकारने की परंपरा इस होली से जुड़ी हुई है,जिसका आज भी पालन किया जा रहा है। आमंत्रण स्वीकारने के बाद यहां सैकड़ों किलो लड्डू बरसाए जाते हैं। इस लड्डू होली को देखने के लिए देश-विदेश से श्रद्धालु आते हैं और लड्डू प्रसाद पाकर खुद को धन्य भी मानते हैं।
पौराणिक कथा के अनुसार द्वापर युग में बरसाने से होली खेलने का निमंत्रण लेकर सखियां नंदगांव गई थीं। होली के इस आमंत्रण को नन्दबाबा ने स्वीकार किया और इसकी खबर अपने पुरोहित के माध्यम से बरसाना में वृषभानु जी के यहां भेजी। इसके बाद बाबा वृषभानु ने नंदगांव से आए पुरोहित को खाने के लिए लड्डू दिए। इस दौरान बरसाने की गोपियों ने पुरोहित के गालों पर गुलाल लगा दिया। पुरोहित के पास गुलाल नहीं थे, इसलिए वे लड्डुओं को ही गोपियों के ऊपर फेंकने लगे। तभी से ये लीला लड्डू होली के रूप प्रचलित हो गई और आज भी हर साल बरसाने में लड्डू की होली खेली जाती है।
आज भी निभाई जाती है ये परम्परा : –
लड्डू होली के दिन सुबह बरसाना की राधा के रूप में सखी न्योता लेकर नंद भवन पहुंचती हैं। नंद भवन उस सखी रुपी राधा का जोरदार स्वागत किया जाता है। इसके बाद नंद गांव से शाम के समय पुरोहित के रूप में सखा को राधा रानी के निज महल में भेजा जाता है, जो होली के निमंत्रण को स्वीकार कर बताने आते हैं। जहां पर लड्डुओं से उनका स्वागत किया जाता है।
परंपरा के अनुसार, हर साल लड्डू होली वाले दिन मंदिर का पूरा प्रांगण राधा कृष्ण के प्रेम में सराबोर हो जाता है। राधा कृष्ण के भजनों का और होली के गीतों का मंदिर प्रांगण में स्वर सुनाई देते हैं। इस दिन लोग राधा कृष्ण के प्रेम में मग्न होकर नाचने लगते हैं और लड्डू का प्रसाद पाकर खुद को धन्य मानते हैं।
लठमार होली अनोखी परंपरा :-

मथुरा और ब्रज की होली दुनियाभर में अपनी अनोखी छटा और परंपराओं के लिए जानी जाती है। यह भारत के सबसे रंगीन पर्व मनाने के अपने अनूठे तरीके लिए भी मशहूर है। इस दिन नंदगांव के ग्वाल बाल होली खेलने के लिए बरसाने जाते हैं, जहां गांव की महिलाएं उन पर लाठी बरसाती हैं। होली से कुछ दिन पहले यहां लट्ठमार होली का आयोजन होता है। कहा जाता है कि द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने मित्रों के साथ राधा और उनकी सखियों के साथ लट्ठमार होली की परंपरा शुरू की थी। तब से आज तक यह परंपरा यहां निभाई जाती है।
कैसे हुई लठमार होली की शुरुआत : –
बरसाना की लट्ठमार होली भगवान कृष्ण के काल में उनके द्वारा की जाने वाली लीलाओं का एक हिस्सा है। माना जाता है कि श्री कृष्ण अपने सखाओं के साथ कमर में फेंटा लगाए राधा रानी और उनकी सखियों के साथ होली खेलने बरसाने पहुंच जाया करते थे। उनकी हरकतों से परेशान होकर उन्हें सबक सिखाने के लिए राधा और उनकी सखियां उन पर डंडे बरसाती थीं। उनकी मार से बचने के लिए कृष्ण और उनके मित्र लाठी और ढालों का उपयोग किया करते थे, जो धीरे-धीरे होली की परंपरा बन गई। बता दें कि इस मनमोहक दृश्य को देखने के लिए हजारों की संख्या में लोग यहां आते हैं।
क्यों मनाई जाती है फूलों वाली होली :-

भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण और राधा रानी की प्रेम कहानी काफी प्रचलित है। कहते हैं कि कान्हा एक बार बहुत व्यस्त होने के कारण राधा जी से मिलने न जा सके। इसपर राधा जी उदास हो गईं और उनकी उदासी से फूल, जंगल सूखने लगे। इस पर जब कान्हा का राधा जी के हालात पता चले तो वह उन्हें मिलने पहुंचे। कन्हैया को देख राधारानी बहुत खुश हो गईं, और मुरझाए फूल फिर से खिल उठे। इन्हीं खिले फूलों से राधा रानी संग गोपियों ने कान्हा संग होली खेली। तब से इस दिन को फुलेरा दूज के तौर पर मनाया जाने लगा।
वृन्दावन के बांके बिहारी मंदिर में फूल वाली होली की विशेष धूम देखने के मिलती है। इस अवसर पर भक्त मंदिर में एकत्रित होते हैं, जहां मंदिर के पुजारी भक्तों पर रंग-बिरंगे फूलों की वर्षा करते हैं। इसके साथ ही लोग एक-दूसरे पर गुलाब, कमल और गेंदे के फूल की पंखुडय़िां बरसाते हैं। इस दौरान लोग होली के गीत व भजन गाते हैं और नृत्य भी करते हैं। राधा रानी बरसाना में रहती हैं, इसलिए बरसाना के लोग फुलेरा दूज मनाते हैं और फूलों से होली खेलते हैं। आप फूलों की होली खेलने और अद्भुत नजारे के लिए बरसाना और वृंदावन जा सकते हैं। बांके बिहारी के मंदिर में भी इस दिन काफी भीड़ उमड़ती है।
कैसे शुरू हुई छड़ीमार होली की परंपरा : –

पौराणिक कथा के अुनसार, कान्हा जी बचपन में बड़े ही नटखट थे और गोपियों को परेशान करने में उन्हें बड़ा आनंद मिलता था इसलिए गोकुल में कान्हा के बालस्वरूप को अधिक महत्व दिया जाता है। गोपियां कृष्ण जी को सबक सिखाने के लिए उनके पीछे छड़ी लेकर भागा करती थी। गोपियां छड़ी का इस्तेमाल कान्हा जी सिर्फ डराने के लिए करती थी। कहते हैं कि इसी परंपरा की वजह से आज गोकुल में छड़ीमार होली खेली जाती है, जिसमें लट्ठ की जगह छड़ी का प्रयोग किया जाता है। बाल गोपाल को चोट न लग जाए इसलिए लट्ठ की जगह छड़ी का इस्तेमाल किया जाता है। कहते हैं कि छड़ीमार होली कृष्ण के प्रति प्रेम और भाव का प्रतीक मानी जाती है।
गोकुल की छड़ीमार होली खेलने के लिए दूर-दराज से श्रद्धालु आते हैं। प्राचीन परंपराओं का निर्वहन करते हुए आज भी हर साल यहां छड़ीमार होली का आयोजन किया है। छड़ीमार होली के दिन कान्हा की पालकी और पीछे सजी-धजी गोपियां हाथों में छड़ी लेकर चलती हैं। छड़ीमार होली की शुरुआत सबसे पहले नंदभवन में ठाकुरजी के समक्ष राजभोग का भोग लगाकर होती है। हर साल होली खेलने वाली गोपियां 10 दिन पहले से छड़ीमार होली की तैयारियां शुरू कर देती हैं। यहां गोपियों को दूध, दही, मक्खन, लस्सी, काजू बादाम खिलाकर होली खेलने के लिए तैयार किया जाता है। फिर फाल्गुन शुक्ल की द्वादशी तिथि को धूमधाम से छड़ीमार होली का आयोजन होता है।
मथुरा की अनोखी हुरंगा होली :-
मथुरा के बलदेव क्षेत्र में दाऊजी मंदिर में ‘भाभियों’ और ‘देवरों’ के बीच अनोखी होली खेली जाती है। यह होली बहुत ही खास होती है. इस दिन भाभियां अपने देवरों के साथ होली खेलती है और गीले सुते कपड़ों से उन्हें मारती है. इस परंपरा को हुरंगा होली कहा जाता है.भगवान कृष्ण रेवती (कृष्ण के भाई बलदेव की पत्नी) के साथ यह होली खेलते थे।’ उन्होंने कहा,’पुरुष महिलाओं को टेसू के रंग से सराबोर करते हैं, जबकि महिलाएं अपने नए कपड़ों को खराब होने से बचाने की कोशिश करती हैं। त्योहार की भावना में महिलाएं भी पुरुषों के कपड़े फाड़ती हैं और उन्हें चाबुक की तरह इस्तेमाल करती हैं।’ कहा जाता है कि अगर ब्रज की होली के बाद हुरंगा नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा। दाऊजी के हुरंगा को देखने के लिए देश-विदेश से लाखों लोग प्रतिवर्ष आते हैं।
होली के दौरान जिसने दाऊजी महाराज का हुरंगा नहीं देखा तो समझो उसने ब्रज की होली महोत्सव का आनंद नहीं लिया। होली के आनंद की कल्पना शब्दों में बखान नहीं की जा सकती। कहा भी जाता है ब्रज की होरी को देखकर ब्रह्मा जी भी ललचा गए।