पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, एक बार ब्रह्मा जी के मानस पुत्र सनक, सनंदन, सनातन और सनत कुमार विष्णु जी के दर्शन हेतु वैकुंठ धाम पहुंचे। वैकुंठ के द्वारपाल जय और विजय ने उन्हें द्वार पर ही रोक लिया। जय और विजय ने ब्रह्मकुमारों से कहा, ”रुकिए…अभी भगवान विष्णु से मिलने का समय नही है। हमें किसी को भी अंदर भेजने की अनुमति नही है”। यह सुनकर ब्रह्मकुमारों ने आश्चर्य जताते हुए कहा, ‘भला भगवान से मिलने के लिए भी किसी से अनुमति चाहिए होगी?
भगवान से कोई भी कभी भी मिल सकता हैं इस पर जय और विजय ने कहा कि ‘ आपकी सब कि बात सही हो सकती है लेकिन यह हमारे कार्य क्षेत्र से बाहर है इसलिए हम आपको अंदर नहीं दे सकते। इस बात से क्रोधित होकर सनक आदि ब्रह्मकुमारों ने जय और विजय को धरती पर जन्म मरण के बंधन में गिरने का श्राप दे कर वहां से चले गए। इस श्राप के मिलने के बाद जय और विजय जोर – जोर से विलाप करने लगे। तभी वहां पर विष्णु जी आये और जय- विजय से इस विलाप का कारण पूछा।
विष्णु के द्वारा जय विजय के श्राप का निवारण
जय और विजय ने भगवान विष्णु को पूरी बात विस्तार पूर्वक बताई। भगवान विष्णु जी ने उनसे कहा कि “मैं श्राप को शून्य तो नही कर सकता , क्योंकि इससे श्राप देने वाले का एवं उसके तप का अनादर करना होगा। और इससे कर्म चक्र भी बाधित होगा। किन्तु , तुम अपने स्थान पर अपना कार्य का वहन कर रहे थे। इसलिए मैं तुम्हे इस श्राप से शीघ्र मुक्त होने के दो उपाय बता रहा हूँ। तुम अपनी इच्छा के अनुसार कोई एक कार्य चुन लो। पहला तुम दोनों पृथ्वी पर सात बार मेरे भक्त के रूप में जन्म लो या फिर, 3 बार मेरे शत्रु के रूप में और मेरे हाथों से अंत गति को प्राप्त हो।”
जय विजय ने हाथ जोड़ कर, धरती पर तीन बार शत्रु के रूप में जन्म लेने की बात स्वीकारी। इससे वो जल्द ही अपने प्रभु की सेवा में लौट पाएंगे। और, दूसरा ये कि तीनो जन्म में प्रभु उनका वध करने आएंगे। तो उन्हें हर जन्म के अंत मे प्रभु के दर्शन भी होंगे। भगवान विष्णु जी उनकी भक्ति देखकर मुस्कराये और उनकी इच्छित 3 जन्मों के लिए तथास्तु कह कर चले गए। इसके बाद जय-विजय अपने पहले जन्म में हिरण्यकश्यपु व हिरणाक्ष नाम के दैत्य बने।
हिरणाक्ष और हिरण्यकश्यपु के जन्म की कहानी
जब हिरणाक्ष ने एक बार धरती को उसकी कक्षा से बाहर खींच कर ब्रम्हांडीय सागर में छिपाने का प्रयास किया था। तब भगवान विष्णु ने, वराह अवतार लेकर उसका वध किया और धरती को पुनः उसके स्थान पर स्थापित कर दिया। अपने भाई की मृत्यु से हिरण्यकश्यपु को बहुत क्रोध आया और ब्रह्मदेव से कई तरह के वरदान पाकर वह स्वयं को अमर समझने लगा और भगवान को नीचा दिखाने का हर संभव कार्य करने लगा। यहां तक उसने अपने पुत्र प्रह्लाद जो नारायण भक्त था को भी सताना शुरू कर दिया। तब भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार लेकर हिरण्यकश्यपु का भी वध कर दिया।
रावण और कुम्भकर्ण के रूप में जन्म
उसके बाद जय और विजय ने अपने दूसरे जन्म में रावण और कुंभकर्ण बने। दूसरे जन्म में रावण लंका का राजा था। और कुम्भकर्ण, उसका छोटा भाई। तब प्रभु ने, अयोध्या के राजा दशरथ के यहां पुत्र राम के रूप में जन्म लिया। और फिर, प्रभु श्री राम ने रावण और कुंभकर्ण का वध किया।
शिशुपाल व दंतवक्र के रूप में जन्म
अपने तीसरे जन्म में जय-विजय, शिशुपाल व दंतवक्र के रूप में जन्मे। इनके इस जन्म के दौरान , श्री नारायण अपने पूर्ण रूप में भगवान श्रीकृष्ण के रूप में धरती पर जन्म लिया। शिशुपाल व दंतवक्र श्री कृष्ण के बुआ के पुत्र के रूप में जन्म लिया था। भाई होने के बाद भी ये दोनों भगवान श्रीकृष्ण से शत्रुता रखते थे। और, श्री कृष्ण को अपना शत्रु मानते थे। इनके बुरे कर्मों के चलते इस जन्म में श्रीहरि ने इनका वध किया। इस प्रकार ये दोनों, तीन जन्मों तक प्रभु के शत्रु के रूप में जन्में। और प्रभु के हाथों मुक्ति के बाद। वे पुन: जय-विजय के रूप में वैकुंठ लोक लौट आए।