भारतवर्ष में एक प्रतापी और दयालु राजा राज्य करता था। वह रोज़ गरीबों और ब्राह्मणों की सहायता करता और दान-पुण्य में लगा रहता था। लेकिन उसकी रानी को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं थी। वह न तो कभी किसी गरीब को दान देती थी और न ही भगवान की पूजा करती थी। इसके अलावा, वह राजा को भी दान देने से हमेशा मना करती रहती थी।
एक दिन राजा शिकार खेलने के लिए जंगल गए हुए थे, तब रानी महल में अकेली थी। उसी समय बृहस्पतिदेव साधु का वेश धारण कर भिक्षा माँगने के लिए महल पहुँचे। उन्होंने रानी से भिक्षा माँगी, लेकिन रानी ने देने से साफ़ इंकार कर दिया और कहा “हे साधु महाराज! मैं तो इस दान-पुण्य से तंग आ गई हूँ। मेरा पति सारा धन लुटाते रहते हैं। अब मेरी यही इच्छा है कि हमारा सारा धन नष्ट हो जाए, ताकि न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी।”
साधु ने रानी से कहा:
“देवी, तुम तो बहुत विचित्र बात कर रही हो। धन और संतान की कामना तो हर कोई करता है। पुत्र और लक्ष्मी तो पापी के घर में भी होनी चाहिए, तभी जीवन आगे बढ़ता है। अगर तुम्हारे पास अधिक धन है, तो उसे अच्छे कामों में लगाओ। जैसे – भूखों को भोजन कराओ, प्यासों के लिए प्याऊ बनवाओ, मुसाफिरों के लिए धर्मशालाएं बनवाओ। जो गरीब माता-पिता अपनी कुंवारी बेटियों की शादी नहीं कर सकते, उनकी सहायता करो। ऐसे बहुत से नेक काम हैं जिन्हें करने से तुम्हारा यश इस लोक और परलोक दोनों में फैलेगा।”
परन्तु रानी पर साधू के बातों का कोई प्रभाव न पड़ा। वह बोली: महाराज आप मुझे कुछ मत समझाएं। मैं ऐसा धन नहीं चाहती जो हर जगह बाँटती फिरूं।
साधु ने रानी की बात सुनकर उत्तर दिया, “यदि तुम्हारी यही इच्छा है, तो तथास्तु! तुम्हारा कहना पूरा हो। तुम ऐसा करना — बृहस्पतिवार के दिन घर को लीपना, फिर पीली मिट्टी से अपना सिर धोकर स्नान करना और भट्टी जलाकर कपड़े धोना। यदि तुम ऐसा करोगी, तो तुम्हारा सारा धन नष्ट हो जाएगा।” यह कहकर साधु महाराज वहाँ से अदृश्य (आलोप) हो गए।
जैसा साधु ने बताया था, रानी ने वैसे ही करना शुरू कर दिया। उसे केवल तीन बृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसका सारा धन-संपत्ति नष्ट हो गई। महल की शोभा मिट गई और घर में अभाव छा गया। स्थिति इतनी खराब हो गई कि राजा का परिवार भोजन के लिए तरसने लगा।
एक दिन राजा ने रानी से कहा, “हे रानी, अब तुम यहीं रहो। मैं किसी दूसरे देश जा रहा हूँ, क्योंकि इस नगर में सभी मुझे जानते हैं और मैं यहाँ कोई छोटा काम नहीं कर सकता।” यह कहकर राजा परदेश चला गया। वहाँ जाकर वह जंगल से लकड़ियाँ काटता और शहर में उन्हें बेचता। इसी तरह वह अपना जीवन यापन करने लगा। उधर, राजा के परदेश जाने के बाद रानी और उसकी दासी बहुत दुःखी रहने लगीं।
एक बार ऐसा समय आया जब रानी और दासी को सात दिन तक बिना भोजन के रहना पड़ा। दोनों बहुत परेशान हो गईं। तब रानी ने अपनी दासी से कहा, “हे दासी! पास के नगर में मेरी बहन रहती है। वह बहुत धनवान है। तुम उसके पास जाकर कुछ सहायता माँग लो, ताकि हमारी थोड़ी-बहुत गुज़र-बसर हो सके।” रानी की बात मानकर दासी उसकी बहन के पास चली गई।
उस दिन गुरुवार था और रानी की बहन उस समय बृहस्पतिवार व्रत की कथा सुन रही थी। जब दासी वहाँ पहुँची, तो उसने अपनी रानी का संदेश दिया। लेकिन रानी की बहन चुप रही और कोई उत्तर नहीं दिया, क्योंकि वह कथा में ध्यान लगाए बैठी थी। जब दासी को कोई उत्तर नहीं मिला, तो वह बहुत दुःखी हुई और क्रोधित भी हो गई। वह तुरंत लौटकर रानी के पास आई और सारी बात बता दी। यह सब सुनकर रानी को बहुत दुख हुआ और उसने अपने भाग्य को कोसना शुरू कर दिया।
उधर, रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहिन की दासी आई थी, परंतु मैं उससे नहीं बोली, इससे वह बहुत दुःखी हुई होगी।
कथा सुनने और पूजन समाप्त करने के बाद, रानी की बहन खुद रानी के घर आई। वह रानी से कहने लगी, “हे बहन! मैं बृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी। जब तुम्हारी दासी मेरे घर आई थी, उस समय व्रत की कथा चल रही थी। कथा के दौरान ना उठते हैं और ना ही बोलते हैं, इसलिए मैं कुछ नहीं कह पाई। अब बताओ, दासी क्यों आई थी? क्या जरूरत थी?” यह सुनकर रानी थोड़ी शांत हुई।
रानी ने कहा, “बहन, तुमसे क्या छुपाऊं — हमारे घर में खाने को एक दाना तक नहीं बचा था।” यह कहते-कहते रानी की आंखों में आँसू आ गए। उसने अपनी बहन को बताया कि वह और दासी पिछले सात दिनों से भूखी थीं। यह सुनकर रानी की बहन ने कहा, “बहन, भगवान बृहस्पतिदेव सबकी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। ऐसा करो, एक बार घर में जाकर देखो — शायद कहीं अनाज रखा हो।” पहले तो रानी को विश्वास नहीं हुआ, लेकिन बहन के कहने पर उसने दासी को अंदर जाकर देखने को कहा। जब दासी अंदर गई, तो वह हैरान रह गई, क्योंकि वहाँ सचमुच अनाज से भरा एक घड़ा रखा हुआ था।
दासी रानी से कहने लगी: “हे रानी! जब हमें भोजन नहीं मिलता, तो हम वैसे भी उपवास (व्रत) ही करते हैं। तो क्यों न इनसे व्रत और कथा की विधि पूछ ली जाए, ताकि हम भी यह व्रत कर सकें और भगवान की कृपा पा सकें?” तब रानी ने अपनी बहन से पूछा, “बहन, कृपया मुझे बताओ कि बृहस्पतिवार व्रत कैसे किया जाता है और इसकी पूजा-विधि व कथा क्या है?”
रानी की बहन ने उसे बताया, “बृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से भगवान विष्णु जी का केले के पेड़ की जड़ में पूजन करना चाहिए। पूजा के समय दीपक जलाना चाहिए, व्रत कथा सुननी चाहिए और दिनभर केवल पीले रंग का भोजन करना चाहिए। इससे बृहस्पतिदेव प्रसन्न होते हैं और अपने भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करते हैं।” पूरी व्रत और पूजन विधि बताने के बाद रानी की बहन अपने घर लौट गई।
सात दिन बाद गुरुवार आया, तो रानी और दासी ने मिलकर बृहस्पतिवार का व्रत रखा। वे घुड़साल में गईं और वहाँ से चना और गुड़ लेकर आईं। फिर उन्होंने इससे केले के पेड़ की जड़ में और भगवान विष्णु की पूजा की। अब उनके सामने एक समस्या थी — पीले भोजन की व्यवस्था कैसे हो? यह सोचकर दोनों बहुत दुःखी हो गईं। लेकिन चूंकि उन्होंने सच्चे मन से व्रत किया था, इसलिए बृहस्पतिदेव प्रसन्न हो गए। उन्होंने एक साधारण व्यक्ति का रूप धारण किया और दो थालों में सुंदर पीला भोजन दासी को देकर चले गए। भोजन पाकर दासी बहुत प्रसन्न हुई और फिर वह रानी के साथ मिलकर भोजन ग्रहण करने लगी।
उसके बाद वे सभी गुरुवार को व्रत और पूजन करने लगी। बृहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास फिर से धन-संपत्ति आ गई, परंतु रानी फिर से पहले की तरह आलस्य करने लगी।
तब दासी रानी से बोली:
“देखो रानी! पहले भी तुम इसी तरह आलस्य करती थीं और तुम्हें धन संभालना कठिन लगता था। उसी कारण सारा धन नष्ट हो गया। अब जब भगवान बृहस्पति की कृपा से हमें फिर से धन मिला है, तो तुम्हें फिर से लापरवाही हो रही है।” दासी ने रानी को समझाया: “हमने यह धन बहुत मुसीबतों के बाद पाया है, इसलिए अब हमें इसे अच्छे कामों में लगाना चाहिए। हमें गरीबों को भोजन कराना चाहिए, दान-पुण्य करना चाहिए और धन को शुभ कार्यों में खर्च करना चाहिए। ऐसा करने से तुम्हारे कुल का यश बढ़ेगा, तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति होगी और पितरों की भी प्रसन्नता होगी।” दासी की बात मानकर रानी ने अपना धन शुभ कार्यों में खर्च करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे उसका यश पूरे नगर में फैल गया।
|| बृहस्पतिवार व्रत कथा के बाद ऐसे करें पूजन संपन्न, इसके बाद प्रसाद बांटकर उसे ग्रहण करना चाहिए ||