वास्तु शास्त्र प्रकृति और पंचतत्वों जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी और आकाश के संतुलन पर आधारित एक प्राचीन विज्ञान है। जब इन तत्वों में असंतुलन उत्पन्न होता है, तो उसका प्रभाव सीधे हमारे शरीर और मन पर पड़ता है, जिससे बीमारियां जन्म ले सकती हैं। यदि घर के नैऋत्य या वायव्य कोण में ढलान है, मुख्य द्वार गलत दिशा में है, खिड़कियां अनुचित स्थान पर हैं या दरवाजे आवाज करते हैं, तो ये सभी स्थितियां घर में नकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न कर सकती हैं। बीम के नीचे सोना या गद्दे के नीचे बेकार की चीजें रखना भी मानसिक और शारीरिक रोगों का कारण बन सकता है। भवन निर्माण के समय यदि पंचतत्वों का समुचित ध्यान न रखा जाए, तो भविष्य में स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। इसलिए यदि घर में लम्बे समय से कोई गंभीर रोग बना हुआ है, तो संभव है उसके मूल में कोई वास्तु दोष छुपा हो, जिस पर ध्यान देना आवश्यक है।
वास्तु शास्त्र के अनुसार भवन की संरचना और दिशा निर्धारण का सीधा संबंध मानव स्वास्थ्य से होता है। यदि भवन की भूमि नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) कोण में ढलान वाली होती है तो यह रोगों को जन्म देने वाली मानी जाती है। इसी प्रकार वायव्य (उत्तर-पश्चिम) कोण में ढलान भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। विकर्ण (तिरछी) भूमि पर बने घर में रहने से विशेष रूप से कर्ण रोग उत्पन्न हो सकते हैं।
- यदि भवन में मुख्य द्वार या रास्ता गलत दिशा या स्थान से निकाला गया हो तो यह वास्तु पुरुष के अंगों को क्षति पहुंचता है, जिसका प्रभाव उस घर के स्वामी के शरीर के उन्हीं अंगों पर पड़ता है। इसके अलावा, यदि खिड़कियां उचित दिशा और स्थान पर न बनी हों, तो उसमें रहने वाले व्यक्ति को रुग्णता घेर सकती है।
- गर्भवती स्त्रियों के लिए विशेष रूप से घर के दरवाजों की स्थिति और स्थिति से निकलने वाली आवाज़ पर ध्यान देना आवश्यक होता है। दरवाजों का आवाज करना गर्भस्थ शिशु पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।
- बीम के नीचे बैठना, सोना या पढ़ना भी मानसिक व शारीरिक रोगों का कारण बन सकता है। इसी प्रकार बिस्तर के गद्दे के नीचे दवा, पैसे, कागज़ या अन्य वस्तुएं रखना शरीर के अंगों में तकलीफें उत्पन्न कर सकता है।
यदि घर की भूमि अग्निकोण और दक्षिण के बीच नीची तथा वायव्य कोण और उत्तर के बीच ऊंची हो, तो यह भी रोगकारक होती है।