शहर में शुक्रवार को महाप्रभु श्री जगन्नाथ की रथयात्रा बड़े ही धूमधाम और श्रद्धा के साथ निकाली गई। रथयात्रा का आयोजन उत्कल समाज द्वारा किया गया, जिसमें जगन्नाथ मंदिर, केदारपुर से भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की भव्य रथयात्रा गाजे-बाजे के साथ प्रारंभ हुई। रथयात्रा के लिए कई दिनों से मंदिर में विशेष तैयारियां की जा रही थीं।
आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन निकाली जाने वाली यह यात्रा धार्मिक मान्यताओं के अनुसार उस दिन की स्मृति है जब भगवान जगन्नाथ अपनी मौसी के घर गुंडिचा मंदिर जाते हैं और वहां 9 दिनों तक निवास करते हैं। यात्रा के दौरान श्रद्धालुओं ने जगह-जगह भगवान का स्वागत किया और पूजा-अर्चना की। रथयात्रा विभिन्न मार्गों से होते हुए देवीगंज रोड स्थित दुर्गाबाड़ी पहुंची, जिसे भगवान की मौसी का घर माना जाता है। यहां भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा को विधिवत विराजित किया गया। अगले 9 दिनों तक दुर्गाबाड़ी में विशेष पूजा-अर्चना की जाएगी और इस दौरान मूल मंदिर का पट बंद रहेगा। 9 दिन बाद बाहुड़ा यात्रा के साथ भगवान पुनः रथ में सवार होकर जगन्नाथ मंदिर लौटेंगे।
गुंडीचा देवी कैसे बनी भगवान जगन्नाथ की मौसी
दरअसल, उत्कल के राजा इंद्रद्युम्न और उनकी पत्नी रानी गुंडिचा ने भगवान नीलमाधव के लिए एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया था। लेकिन इस मंदिर और देवप्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा का कार्य कैसे होगा और कौन योग्य ब्राह्मण इस पावन कार्य के लिए होगा, यह एक बड़ा सवाल था। इसी संदर्भ में देवर्षि नारद उत्कल आए। राजा ने उनसे प्राण प्रतिष्ठा का पुरोहित बनने का निवेदन किया, लेकिन नारद मुनि ने विनम्रता से मना कर कहा कि इस दिव्य विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा केवल ब्रह्माजी ही कर सकते हैं। उन्होंने राजा से कहा कि वे मेरे साथ चलें, मैं ब्रह्माजी को आमंत्रित करता हूं। राजा इस प्रस्ताव पर सहमत हो गए।
देवर्षि नारद ने राजा से पूछा कि क्या वे इस यात्रा के लिए पूरी तरह तैयार हैं क्योंकि ब्रह्मलोक जाना और वापसी करने में धरती पर बहुत समय बीत सकता है। राजा ने कहा कि वे तैयार हैं और मंदिर की स्थापना का अंतिम चरण प्राण प्रतिष्ठा करना है। लेकिन नारद ने फिर सलाह दी कि वे ब्रह्मलोक जाने से पहले अपने परिवार से विदा लेकर जाएं। यह सुनकर रानी गुंडिचा चिंतित हो गईं और राजा को भी स्थिति समझ नहीं आई। नारद ने समझाया कि ब्रह्मलोक का समय पृथ्वी के समय से अलग है, और जब वे लौटेंगे तो राज्य और परिवार बदल चुका होगा।
राजा इंद्रद्युम्न को इस बात की चिंता हुई कि जब वे लौटेंगे तब मंदिर और उनका राज्य कैसा होगा। नारद ने सुझाव दिया कि वे राज्य में सौ कुएं और यात्रियों के लिए सराय बनवाएं, साथ ही सौ यज्ञ कराकर पुरी क्षेत्र को पवित्र बनाएं ताकि यह सुरक्षित रहे। राजा ने यह सब करवाया और ब्रह्मलोक के लिए तैयार हो गए। रानी गुंडिचा ने कहा कि जब तक वे लौटकर नहीं आते, वह समाधि में रहकर तपस्या करेंगी। विद्यापति और ललिता ने भी रानी की सेवा करने का प्रण लिया। विद्यापति ने राज्य संभालने से इनकार करते हुए कहा कि वे रानी मां की सेवा करते रहेंगे।
राजा इंद्रद्युम्न देवर्षि नारद के साथ ब्रह्मलोक चले गए और ब्रह्माजी से मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा का आग्रह किया। ब्रह्माजी ने उनकी बात मान ली और उनके साथ उत्कल लौटे। लेकिन जब वे वापस आए, तब तक कई सदी गुजर चुकी थीं और पुरी में किसी और का शासन था। मंदिर भी रेत के नीचे दब चुका था।
राजा गालुमाधव ने मंदिर की खुदाई कराई और स्थापना की तैयारी करने लगे। इसी बीच राजा इंद्रद्युम्न ब्रह्मदेव के साथ वापस आ गए। लेकिन नए राजा गालुमाधव और पुराने राजा इंद्रद्युम्न के बीच विवाद हो गया। तब हनुमान जी संत के वेश में आए और उन्होंने नए राजा को सत्य बताने के लिए कहा। इंद्रद्युम्न ने रेत में दबे मंदिर के गर्भगृह का मार्ग खोज निकाला। इसी दौरान रानी गुंडिचा समाधि से जाग उठीं। रानी गुंडिचा ने एक युवा दंपति को देखा, जो अपने आपको विद्यापति और ललिता का वंशज बताते हुए रानी को देवी मानकर पूजते थे। रानी ने उन्हें मंदिर तक ले जाने को कहा। राजा इंद्रद्युम्न और रानी गुंडिचा का पुनः मिलन हुआ। नए राजा गालुमाधव ने इस सत्य को स्वीकार किया और स्वयं को कृष्णभक्ति की ओर समर्पित कर दिया।
अंततः ब्रह्मदेव ने यज्ञ कराकर रानी गुंडिचा और राजा इंद्रद्युम्न के हाथों भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलभद्र की प्राण प्रतिष्ठा की। भगवान ने राजा से मंदिर निर्माण में लगे श्रमिकों के लिए आशीर्वाद मांगा। राजा ने भगवान से कई वरदान मांगे, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण था कि इस मंदिर में श्रद्धालुओं को धर्म पथ पर चलने का आशीर्वाद मिले। बलभद्र ने राजा से पूछा कि क्या उन्होंने अपने लिए कुछ मांगा है, लेकिन राजा ने कहा कि भगवान के दर्शन के बाद उनकी कोई इच्छा शेष नहीं रही।
भगवान जगन्नाथ ने रानी गुंडिचा को उनकी तपस्या और सेवा के लिए “माता” की उपाधि दी और कहा कि वह उनकी मौसी हैं। भगवान ने वादा किया कि वे साल में एक बार उनकी पूजा-अर्चना करने अवश्य आएंगे। इसी कारण उस स्थान को “गुंडीचा देवी मंदिर” कहा जाने लगा, जो आज भी भगवान जगन्नाथ की मौसी के नाम से प्रसिद्ध है। यह कथा भगवान जगन्नाथ मंदिर की स्थापना, राजा इंद्रद्युम्न और रानी गुंडिचा की तपस्या तथा भक्तिभाव की मिसाल है, जो आज भी पुरी क्षेत्र में श्रद्धालुओं के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।