अग्निपुराण पुराणों में एक खास स्थान रखता है क्योंकि इसमें बहुत सारी बातें और ज्ञान मिलते हैं। इसके विषय इतने विविध और उपयोगी हैं कि कई विद्वान इसे “भारतीय संस्कृति का विश्वकोश” भी कहते हैं।
इसमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सूर्य की पूजा के बारे में बताया गया है। साथ ही इसमें ऊँची और सामान्य दोनों तरह की विद्याओं का वर्णन, महाभारत और रामायण की संक्षिप्त कहानियाँ, भगवान के मत्स्य और कूर्म जैसे अवतारों की कथाएँ, सृष्टि की रचना, दीक्षा की विधि, वास्तु पूजा और देवताओं के मंत्र जैसे कई उपयोगी विषय सुंदर तरीके से बताए गए हैं।
इस पुराण के वक्ता (जो इसे सुनाते हैं) भगवान अग्निदेव हैं, इसलिए इसे अग्निपुराण कहा जाता है। यह आकार में छोटा होते हुए भी हर प्रकार की विद्याओं (ज्ञान) को अपने अंदर समेटे हुए है। इसी कारण यह अन्य पुराणों की तुलना में और भी खास और महत्वपूर्ण माना जाता है।
पद्म पुराण में भगवान विष्णु के शरीर को पुराणों का रूप माना गया है और अठारह पुराणों को उनके अठारह अंग कहा गया है। इस वर्णन के अनुसार, अग्नि पुराण भगवान विष्णु के बाएँ पैर के समान माना गया है।
विस्तार :-
अग्निपुराण के जो आधुनिक संस्करण उपलब्ध हैं, उनमें 11,475 श्लोक और 383 अध्याय हैं। लेकिन नारदपुराण में इसके 15,000 श्लोक, और मत्स्यपुराण में 16,000 श्लोक बताए गए हैं। दानसागर ग्रंथ में बल्लाल सेन ने जो उद्धरण दिए हैं, वे आज उपलब्ध अग्निपुराण की प्रतियों में नहीं मिलते। इससे ऐसा माना जाता है कि अग्निपुराण के कुछ अंश लुप्त या खो गए हैं।
अग्निपुराण में पुराणों के पांचों लक्षणों अथवा वर्ण्य-विषयों-सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित का वर्णन है। सभी विषयों का सानुपातिक उल्लेख किया गया है।
कथा :-
अग्निपुराण में सभी विद्याओं का वर्णन है। यह अग्निदेव ने अपने श्रीमुख से महर्षि वशिष्ठ को सुनाया था, इसलिए यह प्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण पुराण माना जाता है। यह दो भागों में विभाजित है। पहले भाग में ब्रह्म विद्या का सार बताया गया है। इसकी शुरुआत भगवान विष्णु के दशावतारों के वर्णन से होती है। इसमें 11 रुद्र, 8 वसु और 12 आदित्य का भी उल्लेख है। विष्णु और शिव की पूजा विधि, सूर्य की उपासना और नृसिंह मंत्र की जानकारी दी गई है।
इस पुराण में प्रासाद और देवालय निर्माण तथा मूर्ति स्थापना की विधियाँ भी बताई गई हैं। इसमें भूगोल, ज्योतिष और आयुर्वेद की जानकारी के साथ-साथ राजनीति का भी विस्तृत वर्णन मिलता है। राजनीति में राज्याभिषेक, मंत्रियों की सहायता, संपत्ति का प्रबंधन, सेवकों का चयन, किले निर्माण और राजा का धर्म आदि विषय शामिल हैं। धनुर्वेद का वर्णन भी है, जिसमें प्राचीन अस्त्र-शस्त्रों और सैनिक शिक्षा की उपयोगी और प्रमाणिक जानकारी दी गई है। इसके अंतिम भाग में आयुर्वेद का विशेष वर्णन मिलता है। इसके अलावा छंदशास्त्र, अलंकारशास्त्र, व्याकरण और कोश जैसे विषयों का भी वर्णन किया गया है।
अग्नि पुराण का महत्त्व :-
अग्निपुराण पुराणों में अपने गहरे ज्ञान और व्यापक दृष्टिकोण के कारण विशेष स्थान रखता है। सामान्यतः हर पुराण में पाँच बातें होती हैं – सृष्टि की रचना, संहार, वंश, मन्वंतर और वंशों की कहानियाँ। लेकिन अग्निपुराण इनसे थोड़ा अलग है। इसमें प्राचीन भारत की आध्यात्मिक और लौकिक विद्याओं के साथ-साथ कई भौतिक विषयों का भी व्यवस्थित रूप से वर्णन किया गया है। इसलिए इसे एक बड़ा ज्ञानकोश या विश्वकोश कहा जा सकता है।
आग्नेय हि पुराणेऽस्मिन् सर्वा विद्याः प्रदर्शिताः
यह अग्निपुराण में कहा गया है कि इसमें सभी तरह की विद्याओं का वर्णन है। इसे अग्निदेव ने स्वयं अपने मुख से बताया है, इसलिए यह एक प्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण पुराण माना जाता है। उन्होंने यह ज्ञान महर्षि वशिष्ठ को सुनाया था। यह पुराण दो भागों में बँटा है और पहले भाग में ब्रह्म विद्या का सार बताया गया है। इसे सुनने से देवताओं सहित सभी प्राणी सुख प्राप्त करते हैं। इसमें भगवान विष्णु के अवतारों, पृथु की कथा, दिव्य स्त्री मरिषा की कहानी और कश्यप ऋषि द्वारा अपनी पत्नियों से वंश विस्तार के वर्णन शामिल हैं।
अग्निपुराण में भगवान अग्निदेव ने देवालय निर्माण के लाभ के बारे में बताया है और चौसठ योगनियों का विस्तृत वर्णन किया है। इसमें शिव पूजा के विधि और काल गणना के महत्त्व पर भी चर्चा की गई है। गणित के महत्व को समझाया गया है, साथ ही विशिष्ट राहू का भी वर्णन किया गया है। यह पुराण प्रतिपदा व्रत, शिखिव्रत जैसे व्रतों के महत्त्व को भी दर्शाता है। इसमें धीर नामक ब्राह्मण की एक कथा और दशमी व्रत, एकादशी व्रत के महत्त्व का भी उल्लेख है।
अग्निपुराण की संक्षिप्त जानकारी
अग्निपुराण में अग्निदेव ने महर्षि वशिष्ठ से ईशान कल्प का वर्णन किया है। इसमें पंद्रह हजार श्लोक हैं। पहले पुराण विषय के प्रश्न हैं, फिर अवतारों की कथा, सृष्टि का विवरण और विष्णु पूजा का वृतांत है। इसके बाद अग्निकार्य, मंत्र, मुद्रादि लक्षण, दीक्षा विधि और अभिषेक का निरूपण किया गया है। इसमें मंडल का लक्षण, कुशामापार्जन, पवित्रारोपण विधि, देवालय विधि, शालग्राम पूजा, मूर्तियों का विवरण, न्यास विधि, प्रतिष्ठा पूर्तकर्म, विनायक पूजा, दीक्षाओं की विधि, सर्वदेव प्रतिष्ठा, ब्रह्माण्ड का वर्णन, गंगादि तीर्थों का माहात्म्य, द्वीप और वर्ष का वर्णन, ज्योतिष शास्त्र, युद्धजयार्णव, षटकर्म मंत्र, यंत्र, औषधि समूह, कुब्जिका पूजा, छ: प्रकार की न्यास विधि, कोटि होम विधि, मन्वंतर निरूपण, ब्रह्माचर्य आश्रमों के धर्म, श्राद्धकल्प विधि, ग्रह यज्ञ, श्रौतस्मार्त कर्म, प्रायश्चित, तिथि व्रत, वार व्रत, नक्षत्र व्रत विधि, मासिक व्रत, दीपदान विधि, नवव्यूहपूजन, नरक निरूपण, व्रतों और दानों की विधि, नाड़ी चक्र का विवरण, संध्या की उत्तम विधि, गायत्री के अर्थ का निर्देश, लिंगस्तोत्र, राज्याभिषेक के मंत्र, राजाओं के धार्मिक कृत्य, स्वप्न विचार, शकुन आदि का निरूपण, रत्न दीक्षा विधि, रामोक्त नीति, रत्नों के लक्षण, धनुर्विद्या, व्यवहार दर्शन, देवासुर संग्राम, आयुर्वेद, गज चिकित्सा, गो चिकित्सा, मनुष्य चिकित्सा, पूजा पद्धतियाँ, शांति विधियाँ, छंद शास्त्र, साहित्य, कोष, प्रलय का लक्षण, शारीरिक वेदान्त, नरक वर्णन, योगशास्त्र, ब्रह्मज्ञान और पुराण श्रवण का फल बताया गया है।
अग्निपुराण का समय
अग्निपुराण एक ऐसा ग्रंथ है जो लोकशिक्षण के लिए उपयोगी विद्याओं का संग्रह प्रस्तुत करता है और इसे ‘पौराणिक कोष’ भी कहा जा सकता है। इसका समय निर्धारित करना कठिन है, लेकिन भारतीय परंपरा के अनुसार, अग्निपुराण में काव्यशास्त्र से संबंधित सिद्धांत सबसे पहले लिखे गए थे। महेश्वर ने काव्यप्रकाशार्थ में बताया कि भरत ने अलंकार शास्त्र की सामग्री को अग्निपुराण से लिया था और इसे संक्षिप्त कारिकाओं में लिखा। इसी तरह, साहित्यकौमुदी की टीका में विद्याभूषण लिखते हैं कि भरत ने अग्निपुराण को देखकर साहित्य की प्रक्रिया को संक्षिप्त रूप में निबंधित किया था। इस प्रकार, अग्निपुराण का समय भरत से पहले का माना जाता है।
आधुनिक समालोचकों के अनुसार, अग्निपुराण एक बाद की रचना है और इसका वर्तमान रूप भरत, भामह, दण्डी, आनन्दवर्धन और भोज के समय के बाद का है। इसे आर्वाचीन सिद्ध करने के लिए कुछ उक्तियाँ दी गई हैं, जो इसके निर्माणकाल के बारे में जानकारी प्रदान करती हैं। अग्निपुराण भोजराज के सरस्वतीकण्ठाभरण का प्रधान स्रोत है, इसलिए इसे एकादश शती से पुराना माना जा सकता है। इसका उपजीव्य ग्रंथ दण्डी का काव्यादर्श है, और इसे सप्तम शती से पहले का माना गया है। इसलिए, अग्निपुराण का रचनाकाल सप्तम और नवम शती के मध्य माना जाता है।