भागवत पुराण हिन्दुओं के अट्ठारह पुराणों में से एक है। इसे श्रीमद्भागवतम् या केवल भागवतम् भी कहते हैं। इसका मुख्य वर्ण्य विषय भक्ति योग है, जिसमें कृष्ण को सभी देवों का देव या स्वयं भगवान के रूप में चित्रित किया गया है। इसके अतिरिक्त इस पुराण में रस भाव की भक्ति का विस्तार से निरुपण भी किया गया है। परंपरागत तौर पर इस पुराण के रचयिता वेद व्यास को माना जाता है।
श्रीमद्भागवत भारतीय वाङ्मय का बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह भगवान शुकदेव द्वारा महाराज परीक्षित को सुनाया गया था। इसमें भक्ति मार्ग का सुंदर चित्रण है और प्रत्येक श्लोक में श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम भाव झलकता है। इसमें साधन और सिद्ध ज्ञान, साधना और सिद्ध भक्ति, मर्यादा और अनुग्रह के मार्ग, द्वैत और अद्वैत के समन्वय के साथ प्रेरणादायी विविध कथाओं का अद्भुत संग्रह है।
अष्टादश पुराणों में भागवत नितान्त महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध माना जाता है। पुराणों की सूची में इसे आठवें स्थान पर रखा गया है (भागवत 12.7.२3 के अनुसार )। इस पुराण की कथा महर्षि सूत जी द्वारा सुनाई गई है। वे कई साधु-संतों को भगवान विष्णु के अवतारों की कथा सुनाते हैं। साधु लोग उनसे भगवान विष्णु के अनेक रूपों और अवतारों के बारे में सवाल करते हैं। सूत जी कहते हैं कि यह कथा उन्होने ऋषि शुकदेव से सुनी थी। भागवत पुराण में कुल बारह स्कन्ध (अध्यायों के समूह) होते हैं। पहले स्कन्ध में भगवान विष्णु के सभी अवतारों का संक्षेप में वर्णन किया गया है।
आजकल ‘भागवत’ आख्या धारण करने वाले दो पुराण उपलब्ध होते हैं :
देवीभागवत
श्रीमद्भागवत
अत: इन दोनों में पुराण कोटि में किसकी गणना अपेक्षित है ? इस प्रश्न का समाधान आवश्यक है।
जब विभिन्न तरीकों से समीक्षा की जाती है, तो अंत में यही समझ में आता है कि श्रीमद्भागवत को ही असली पुराण माना जाना चाहिए, जबकि देवीभागवत को उपपुराण (अर्थात छोटे या गौण पुराण) की श्रेणी में रखना अधिक सही है। श्रीमद्भागवत में देवीभागवत के स्वरूप या महत्व का कोई उल्लेख नहीं है, लेकिन देवीभागवत खुद को तो “पुराण” कहता है और श्रीभागवत को “उपपुराण” बताता है (1.3.16)। देवीभागवत के पंचम स्कंध में जो भुवनकोश (संसार की संरचना) का वर्णन है, वह श्रीमद्भागवत के पंचम स्कंध में बताए गये विषय का अक्षरश: अनुकरण करता है। श्रीभागवत में जो भारतवर्ष की महिमा बताने वाले आठ श्लोक (5.9.21-28) हैं, वे देवीभागवत में भी जैसे के तैसे (8.11.22-29) दिए गए हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि श्रीभागवत वैज्ञानिक विषयों को गद्य (साधारण भाषा) में बताता है, जबकि देवीभागवत कविता (पद्य) के रूप में और थोड़ी दिखावे वाली शैली में लिखता है। श्रीमद्भागवत में भक्ति और अध्यात्मिक ज्ञान का सुंदर मेल है। इसे वेदों के वृक्ष का सबसे मीठा फल कहा गया है, जिसे महर्षि शुकदेव ने अपनी मधुर वाणी से और भी अमृतमय बना दिया।
“सर्ववेदान्तसारं हि श्रीभागवतमिष्यते।
तद्रसामृततृप्तस्य नान्यत्र स्याद्रतिः क्वचित्॥”
अर्थ : श्रीमद्भागवत सभी वेदों और उपनिषदों का सार है। जो व्यक्ति इसके अमृत जैसे रस से तृप्त हो जाता है, उसे फिर किसी दूसरी चीज़ में कोई आनंद या रुचि नहीं रहती।
‘विद्यावतां भागवते परीक्षा’ : भागवत विद्वत्ता की कसौटी है और इसी कारण टीकासंपत्ति की दृष्टि से भी यह अतुलनीय है। विभिन्न वैष्णव संप्रदाय के विद्वानों ने अपने विशिष्ट मत की उपपत्ति तथा परिपुष्टि के निमित्त भागवत के ऊपर स्वसिद्धांतानुयायी व्याख्याओं का प्रणयन किया है जिनमें कुछ टीकाकारों का यहाँ संक्षिप्त संकेत किया जा रहा है:
श्रीधर स्वामी (भावार्थ दीपिका; 13वीं शती, भागवत के सबसे प्रख्यात व्याखाकार),
सुदर्शन सूरि (14वीं शती शुकपक्षीया व्याख्या विशिष्टाद्वैतमतानुसारिणी है);
सन्त एकनाथ (एकनाथी भागवत; १६वीं शती मे मराठी भाषा की उत्तम रचना),
विजय ध्वज (पदरत्नावली 16वीं शती; माध्वमतानुयायी),
वल्लभाचार्य (सुबोधिनी 16वीं शती, शुद्धाद्वैतवादी),
शुदेवाचार्य (सिद्धांतप्रदीप, निबार्कमतानुयायी),
सनातन गोस्वामी (बृहद्वैष्णवतोषिणी),
जीव गोस्वामी (क्रमसन्दर्भ)
भागवत के देशकाल का यथार्थ निर्णय अभी तक नहीं हो पाया है। एकादश स्कंध में (5.38-40) कावेरी, ताम्रपर्णी, कृतमाला आदि द्रविड़देशीय नदियों के जल पीनेवाले व्यक्तियों को भगवान् वासुदेव का अमलाशय भक्त बतलाया गया है। इसे विद्वान् लोग तमिल देश के आलवारों (वैष्णवभक्तों) का स्पष्ट संकेत मानते हैं। भागवत में दक्षिण देश के वैष्णव तीर्थों, नदियों तथा पर्वतों के विशिष्ट संकेत होने से कतिपय विद्वान् तमिलदेश को इसके उदय का स्थान मानते हैं।
13वीं शताब्दी में बोपदेव नाम के विद्वान ने हरिलीलामृत, मुक्ताफल और परमहंसप्रिया जैसे ग्रंथ लिखे जो भागवत से संबंधित हैं। उनके आश्रयदाता देवगिरि के यादव राजा थे। इसी समय के राजा रामचंद्र (1271-1309) के मंत्री हेमाद्रि ने भी चतुर्वर्ग चिंतामणि नामक ग्रंथ में भागवत के कई श्लोकों को उद्धृत किया है। लेकिन ये लोग भागवत के रचयिता नहीं माने जाते, क्योंकि उन्होंने तो बस उसका उपयोग किया था।शंकराचार्य के दादा गुरु गौड़पादाचार्य ने अपनी पुस्तकों पंचीकरण व्याख्या और उत्तरगीता टीका में भागवत के श्लोकों का उल्लेख किया है। इसका मतलब है कि भागवत पुराण 7वीं शताब्दी (सप्तम शती) से पहले ही लिखा जा चुका था। इस आधार पर यह माना जाता है कि भागवत पुराण की रचना 7वीं शताब्दी से पहले हो चुकी थी, और यह बहुत ही प्राचीन ग्रंथ है।
भागवत पुराण का प्रभाव मध्ययुगीन वैष्णव संप्रदायों के उदय में बहुत महत्वपूर्ण रहा है। इसने भारत की प्रांतीय भाषाओं में रचे गए कृष्ण काव्य को विशेष प्रेरणा और दिशा दी। भागवत से ही प्रेरणा लेकर ब्रजभाषा के अष्टछापी कवि जैसे सूरदास, नंददास, निम्बार्क संप्रदाय के श्रीभट्ट और हरिव्यास, राधावल्लभ संप्रदाय के हितहरिवंश और हरिदास स्वामी जैसे कवियों ने राधा-कृष्ण की लीलाओं का सुंदर वर्णन किया। मिथिला के विद्यापति, बंगाल के चंडीदास, ज्ञानदास, गोविंददास, असम के शंकरदेव और माधवदेव, उत्कल के उपेन्द्र भंज और दीनकृष्णदास, महाराष्ट्र के नामदेव और माधव पंडित, गुजरात के नरसी मेहता और राजस्थान की मीराबाई – इन सभी ने भागवत की रसमयी कथाओं से प्रेरणा लेकर अपने भक्ति गीतों में राधा-कृष्ण की लीलाओं का गायन किया। दक्षिण भारत की भाषाओं – तमिल, आंध्र, कन्नड़ और मलयालम – के वैष्णव कवियों पर भी भागवत का गहरा प्रभाव पड़ा है।
भागवत का आध्यात्मिक दृष्टिकोण अद्वैत वेदांत पर आधारित है, जबकि इसकी साधना पद्धति भक्ति पर केंद्रित है। अद्वैत ज्ञान और भक्ति भाव का यह समन्वय भागवत की विशेषता है। इन्हीं गुणों के कारण भागवत को संस्कृत साहित्य के तीन प्रमुख आधार ग्रंथों – वाल्मीकि रामायण और महाभारत – के साथ ‘उपजीव्य’ काव्यत्रयी में शामिल किया जाता है।
भागवत पुराण में कुल 18,000 श्लोक, 335 अध्याय और 12 स्कंध हैं। इनमें भगवान विष्णु के विभिन्न लीलावतारों का सुंदर और सरल भाषा में वर्णन किया गया है। लेकिन भागवत का दशम स्कंध विशेष रूप से महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इसमें भगवान श्रीकृष्ण की ललित लीलाओं का विस्तृत और हृदयस्पर्शी वर्णन किया गया है।
हालाँकि अन्य पुराणों जैसे विष्णुपुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी श्रीकृष्ण का चरित्र वर्णित है, लेकिन भागवत के दशम स्कंध में जिस प्रकार कोमल भाषा, भावपूर्ण शब्दों और गहरे भक्तिरस के साथ श्रीकृष्ण की लीलाओं को प्रस्तुत किया गया है, वह अद्वितीय है। रासपंचाध्यायी (अध्याय 10.29 से 10.33 तक) अपने अध्यात्म और साहित्यिक सौंदर्य के कारण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसके साथ ही वेणुगीत (10.21), गोपीगीत (10.30), युगलगीत (10.35) और भ्रमरगीत (10.47) ने भागवत को काव्य की ऊँचाइयों तक पहुँचा दिया है।