शिवपुराण में भगवान शिव को समर्पित प्रदोष व्रत का वर्णन मिलता है। प्रदोष व्रत हर माह शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन रखा जाता है. इस बार प्रदोष व्रत शुक्रवार को पड़ रहा है इस लिए इसे शुक्र प्रदोष व्रत कहा जायेगा। इस दिन भगवान शिव और माँ पार्वती की विशेष रूप से पूजा की जाती है। माना जाता है कि इस व्रत को करने से व्यक्ति के जीवन से सभी प्रकार के भी से मुक्ति मिल जाती है। इस दिन की पूजा में प्रदोष व्रत कथा का पाठ अवश्य करना चाहिए। ऐसा करने से व्यक्ति को पूर्ण फल की प्राप्ति होती है।
शुक्र प्रदोष व्रत कथा
शुक्र प्रदोष व्रत की कथा के अनुसार, प्राचीन काल की बात है कि एक नगर में तीन मित्र रहते थे। ये तीनों घनिष्ट मित्र थे उनमे एक राजा का पुत्र, दूसरा ब्राह्मण का पुत्र और तीसरा एक सेठ का पुत्र था। उनमें से राजा और ब्राह्मण के पुत्रों का विवाह हो चुका था, जबकि सेठ पुत्र का विवाह तो हो गया था, लेकिन उसका गौना अभी नहीं हुआ था। एक दिन तीनों मित्र आपस में बैठकर स्त्रियों के विषय में चर्चा करने लगे। इस चर्चा के दौरान ब्राह्मण पुत्र ने नारियों की प्रशंसा करते हुए कहा, “नारीहीन घर भूतों का डेरा होता है ” यह बात सुनकर सेठ पुत्र को बहुत गहरी लगी। उसने तुरंत ही निश्चय किया कि वह अपनी पत्नी को घर ले आएगा। घर आकर उसने अपने माता-पिता से अपने निश्चय की बात कही। उसके माता-पिता ने भी अनुमति दे दी।
जब सेठ पुत्र ने अपने माता-पिता से अपनी पत्नी को विदा कराने की इच्छा जताई, तो उन्होंने उसे समझाया और कहा, “बेटा, इन दिनों शुक्र देवता अस्त यानी डूबे हुए हैं। इन दिनों बहु-बेटियों को उनके घर से विदा कराकर लाना शुभ नहीं, यह कार्य शुक्रोदय के बाद ही करना चाहिए, तभी मंगल होता है।” सेठ पुत्र अपनी जिद से टस से मस नहीं हुआ और अपनी ससुराल जा पहुंचा. जब उसके सास-ससुर को उसके आगमन और इरादे की जानकारी हुई, तो उन्होंने भी उसे बहुत समझाने का प्रयास किया। उन्होंने भी कहा कि यह समय विवाहिता कन्याओं को विदा कराने के लिए उचित नहीं है। लेकिन सेठ पुत्र किसी की बात मानने को तैयार नहीं हुआ।
आखिरकार, सास-ससुर ने विवश होकर अपनी कन्या को विदा कर दिया। जैसे ही पति-पत्नी ससुराल से निकलकर नगर से बाहर पहुंचे, उनकी बैलगाड़ी का एक पहिया अचानक टूट गया और साथ ही एक बैल की टांग भी टूट गई। इस दुर्घटना में पत्नी को भी गंभीर चोटें आईं। सेठ-पुत्र ने आगे चलने का प्रयत्न जारी रखा परंतु दुर्भाग्य उसका पीछा नहीं छोड़ रहा था। कुछ ही दूरी पर उसकी भेंट डाकुओं से हो गई। उन्होंने दोनों को घेर लिया और उनका सारा धन-धान्य लूट लिया।
बड़े कष्टों और विपत्तियों को झेलते हुए सेठ पुत्र अपनी घायल पत्नी सहित किसी तरह घर लौट आया। घर पहुंचते ही जैसे उसकी परेशानियों का अंत नहीं हुआ—एक और दुर्भाग्य उसका इंतजार कर रहा था। घर में प्रवेश करते ही उसे एक विषैले साँप ने डस लिया। उसके पिता ने तुरंत नगर के श्रेष्ठ वैद्यों को बुलाया। वैद्यों ने स्थिति की गंभीरता को समझते हुए जाँच की और कहा, “आपका पुत्र अधिकतम तीन दिन ही जीवित रह पाएगा। विष अत्यंत घातक है और इसका उपचार अब संभव नहीं।” तभी यह बात उसके मित्र ब्राह्मण पुत्र को पता चली। वह तुरंत सेठ के घर गया और कहा, “आपके पुत्र की यह सारी परेशानियाँ शुक्र अस्त में पत्नी को विदा कर लाने के कारण हुई हैं। यदि आप अपने पुत्र और पुत्रवधु को तुरंत ससुराल वापस भेज दें और कुछ समय वहीं रुकवाएँ, तो इन कष्टों से मुक्ति संभव है।” सेठ को ब्राह्मण-पुत्र की बात जंच गई और अपनी पुत्रवधु और पत्र को वापिस लौटा दिया. सेठ को ब्राह्मण पुत्र की बात जंच गई और उसने तुरंत अपने पुत्र और बहू को ससुराल वापस भेज दिया। जैसे ही वे ससुराल पहुंचे, चमत्कारिक रूप से सेठ पुत्र की तबीयत सुधरने लगी। उसके शरीर से विष का प्रभाव धीरे-धीरे समाप्त होने लगा। कुछ ही दिनों में वह पूर्णतः स्वस्थ हो गया। इसके बाद सेठ पुत्र और उसकी पत्नी ने अपने जीवन में धर्म और मर्यादा का पालन करते हुए सुखपूर्वक जीवन व्यतीत किया। अंत में उन्होंने पुण्य के साथ अपना जीवन पूर्ण किया और मृत्यु के पश्चात स्वर्ग लोक को प्राप्त हुए।