हिन्दू धर्म में शमी और मन्दार के वृक्ष को पवित्र एवं पूजनीय माना जाता हैं। इस वृक्ष की पत्ती के साथ ही गणपति और शिव की पूजा पूर्ण माना जाता है इसका कारण शमी और मन्दार को गणेश जी से प्राप्त एक वरदान है जिसका वर्णन गणेश पुराण के क्रीड़ाकांड में वर्णित की गई है।
एक बार नारद मुनि तीनो लोकों में विचरते हुए देवराज इंद्र के पास स्वर्गलोक में पहुँचे। इंद्रदेव ने उनका नारद मुनि का स्वागत किया। वार्तालाप के दौरान इंद्र ने मुनि से औरव ऋषि की कथा सुनाने का आग्रह किया। इस्न्दरा की आग्रह पर नारदमुनि ने इस प्रकार कथा सुनाई, “एक समय में मालवा में औरव नाम के ऐसे विद्वान ब्राह्मण हुए जिनका तेज सूर्य के सामान प्रदीप्त था, और उनको देवताओं के सामान शक्ति प्राप्त थी। बहुत दिनों बाद औरव ऋषि की पत्नी ने एक अत्यंत सुन्दर पुत्री को जन्म दिया जिसका नाम शमी रखा गया। ऋषि को अपनी पुत्री शमी से बहुत स्नेह था। जब वह सात साल की हुई तो उसका विवाह धौम्य ऋषि के पुत्र मन्दार से किया। शौनक ऋषि के आश्रम में रहकर मन्दार शिक्षा प्राप्त कर रहा था, इसलिए विवाह के पश्चात मंदार ने शमी को उसके माता पिता के पास छोड़कर शिक्षा पूरी करने पुनः शौनक के आश्रम चला गया। जब मन्दार और शमी पूर्ण यौवन को प्राप्त हुए तब मन्दार अपने ससुराल जाकर शमी को विदा कराकर पुनः शौनक के आश्रम की ओर वापस चला। रास्ते में एक महान तपस्वी ऋषि भृशुण्डी का आश्रम पड़ता था जो गणेश जी का बहुत बड़े भक्त थे। उन्होंने गणेश जी को अपनी तपस्या से प्रसन्न किया था। गणेश जी ने ऋषि को यह वरदान दिया था की गणेश की तरह ऋषि भृशुण्डी भी अपने कपाल से सूंढ़ निकाल सकते हैं। जब शमी और मन्दार भुशुण्डी के आश्रम के पास पहुंचे तो उन्हें गणेश की तरह सूंढ़ निकाले देख कर दोनों को हँसी आ गई।
यह देखकर ऋषि बहुत क्रोधित हो गए और उन्होंने दोनों को श्राप दे दिया कि – तुम दोनों वृक्ष बन जाओ, ऐसा वृक्ष कि जिसके पास पशु -पक्षी भी न आएं। फिर मंदार एक ऐसा वृक्ष बना जिसकी पत्तियां कोई पशु नहीं खाताऔर शमी ऐसा वृक्ष बनी जिसपर काँटों की अधिकता के कारण कोई पक्षी शरण नहीं लेता। जब शमी और मंदार कई दिनों पश्चात भी ऋषि शौनक के आश्रम नहीं पहुंचे तब ऋषि उनकी खोज में निकले। सबसे पहले वे शमी के पिता औरव के घर गए। वहाँ उन्हें न पा कर खोजते हुए भृशुण्डी के आश्रम पर आये जहाँ उन्हें सारे वृत्तांत की जानकारी हुई। उन्होंने भृशुण्डी ऋषि से दोनों को श्रापमुक्त करने का अनुरोध किया परन्तु भृशुण्डी ने इसमें अपनी असमर्थता व्यक्त की। तब ऋषि शौनक ने गणेश जी को प्रसन्न करने के लिए कठिन तपस्या प्रारम्भ की। उनकी तपस्या से प्रसन्न हो कर गणपति दस हाथ ऊँचे सिंह पर आरूढ़ हो प्रकट हुए। गणेश जी ने उनसे वरदान मांगने को कहा। ऋषि शौनक शमी और मन्दार को शापमुक्त करने का वरदान माँगा। किन्तु गणेश अपने प्रिय भक्त भृशुण्डी की अवहेलना नहीं करना चाहते थे और यह वरदान देने से मना कर दिया किन्तु इसके बदले में यह वरदान दिया कि ये दोनों वृक्ष तीनो लोकों में पूजनीय होंगे और शिव तथा स्वयं उनकी पूजा बिना इनकी उपस्थिति में पूर्ण नहीं माने जायेंगे। इसके बाद ऋषि शौनक तो अपने घर लौट गए परन्तु ऋषि औरव ने अपना शरीर वहीँ त्याग दिया। उनका तेज अग्नि रूप में शमी पेड़ के तने में स्थिर हुआ।”
इसलिए आज भी शिव और गणेश के मंदिरों में हवन से पहले शमी की लकड़ियों को घिसकर अग्नि प्रज्जलित की जाती है और उसमे आहूतियां डाली जाती है। बिना मंदार पुष्प और शमी पत्रों के शिव एवं गणपति की पूजा पूर्ण नहीं मानी जाती।