एक दयालु राजा था। वह बहुत न्याय प्रिय तथा प्रजा वत्सल एवं धार्मिक स्वभाव का था। वह नित्य अपने इष्ट देव विष्णु की बडी श्रद्धा से पूजा-पाठ एवं स्मरण किया करता था। एक बार भगवान श्री विष्णु ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिये तथा कहा “राजन् मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ, अपनी कोई इछा हो तो मांग लो, प्रजा की सेवा करने वाला प्रजा वत्सल राजा बोला “भगवान मेरे पास आपका दिया सब कुछ हैं आपकी कृपा से राज्य मे सब प्रकार सुख-शान्ति है। फिर भी मेरी एक ही ईच्छा हैं कि जैसे आपने दर्शन देकर मुझे धन्य किया है , वैसे ही मेरी प्रजा को भी कृपा कर दर्शन दीजिये।”
भगवान ने राजा को समझाया “यह तो सम्भव नहीं है” परन्तु प्रजा को चाहने वाला राजा भगवान् से हट करने लगा। आखिर भगवान को अपने भक्त के सामने झुकना ही पडा ओर बोले “ठीक है, कल अपनी सारी प्रजा को उस पहाड़ी के पास ले आना वही पर मैं सभी को दर्शन दूँगा ।”
प्रभु की ये बात सुन कर राजा प्रसन्न हुआ। दूसरे दिन राजा ने अपने सारी प्रजा और स्वजनों को साथ लेकर पहाडी की ओर चलने लगा। चलते-चलते रास्ते मे एक स्थान पर तांबे कि सिक्कों का पहाड दिखा। कुछ लोग उस ओर भागने लगे। तभी ज्ञानी राजा ने सबको सर्तक किया कि कोई उस ओर ध्यान न दे, क्योकि तुम सब प्रभु दर्शन को जा रहे हो, अतः लालच एवं अन्य मनोविकारों को त्याग दो इन तांबे के सिक्कों के पीछे अपने सोभाग्य को लात मत मारो। परन्तु लालच के वशीभूत कुछ लोग तो तांबे के सिक्कों की ओर भाग ही गए और सिक्कों की गठरी बनाकर अपने घर कि ओर चले गए। वे मन ही मन सोच रहे थे, पहले ये सिक्कों को समेट ले, प्रभु से तो फिर मिल ही लेगे ।
फिर कुछ दूर चलने पर चांदी कि सिक्कों का एक पहाड़ दिखाई दिया। इस बार भी बची हुई प्रजा में से कुछ लोग भागने लगे ओर चांदी के सिक्कों को गठरी बनाकर अपनी घर की ओर चले गए । उनके मन मे विचार आया कि ऐसा मौका बार-बार नहीं मिलता है। चांदी के इतने सारे सिक्के फिर मिले न मिले, भगवान तो फिर कभी मिल ही जायेगें. इसी प्रकार कुछ दूर और चलने पर सोने के सिक्कों का पहाड़ नजर आया। अब तो प्रजा जनो के साथ राजा के स्वजन भी उस ओर भागने लगे। वे भी दूसरों की भांति सिक्कों कि गठरीयां लादकर अपने घरों की ओर चल दिये। अब केवल राजा ओर रानी ही शेष रह गये थे। राजा रानी से कहने लगे। “देखो कितने लोभी ये लोग प्रभु दर्शन का महत्व ही नहीं जानते हैं। भगवान के सामने सारी दुनियां की दौलत क्या चीज हैं..?”
सही बात है — रानी ने राजा कि बात का समर्थन किया और वह आगे जाने पर राजा ओर रानी ने देखा कि सप्तरंगि आभा बिखरता एक हीरों का पहाड़ हैं। अब तो रानी से भी रहा नहीं गया, हीरों के आर्कषण को देखकर से वह भी दौड पड़ी और हीरों कि गठरी बनाने लगी । फिर भी उसका मन नहीं भरा तो साड़ी के पल्लू मेँ भी बांधने लगी। वजन के कारण रानी के वस्त्र शरीर से अलग हो गये, परंतु हीरों की लालच नहीं मिटी। यह देख राजा को अत्यन्त ही दुःख हुआ। बड़े ही दुःखद मन से राजा अकेले ही आगे बढ गये ।
वहाँ सचमुच भगवान खड़े उसका इन्तजार कर रहे थे। राजा को देखते ही भगवान मुसकुराये ओर पुछा “कहाँ है तुम्हारी प्रजा और तुम्हारे प्रियजन । मैं तो कब से उनसे मिलने के लिये बेकरारी से उनका इन्तजार कर रहा हूँ ” राजा ने शर्म और आत्म-ग्लानि से अपना सर झुका दिया ।
तब भगवान ने राजा को समझाया “राजन, जो लोग अपने जीवन में भौतिक सांसारिक सुखों की प्राप्ति को मुझसे अधिक मानते हैं, उन्हें कदाचित मेरी प्राप्ति नहीं होती और वह मेरे स्नेह तथा कृपा से भी वंचित रह जाते हैं..!!” ऐसा इसलिए क्योंकि मनोविकारों से युक्त एवं सुखों में जीवन जीने वाले तप नहीं कर पाते है !